दुनिया में महिलाएं अपने हिसाब से कभी भी नहीं जी पाई है। इसके लिए इतिहास भी गवाह है। कई महिलाएं थी जिन्होंने नाम कमाया है लेकिन वह फिर भी वह अपने हिसाब से नहीं जी पाई है। अपने हिसाब से जीने के लिए सबसे पहले परिवार से लड़ना पड़ता है फिर समाज से लड़ना पड़ता है। समाज ने महिलाओं के ऊपर कई तरह की पाबंदियां लगा रखी है। जिससे वह अपने उड़ान को हासिल नहीं कर पाती है। अंत में वह अपने आपको खत्म करती है या फिर पाबंदियों के बीच अपने जीवन को व्यतित करती है। इसी मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक फैसला सुनाया है।


इस फैसले में हिंदू महिला को उसके मुस्लिम पति के साथ फिर से मिला दिया और कहा कि उसके पास अपनी शर्तों पर जीवन जीने का विकल्प है। अदालत ने उस व्यक्ति के खिलाफ अपहरण के आरोपों में दर्ज की गई पहली सूचना रिपोर्ट को भी रद्द कर दिया, यह देखते हुए कि महिला एक वयस्क थी जिसने अपनी मर्जी से उससे शादी की थी। न्यायमूर्ति पंकज नकवी और न्यायमूर्ति विवेक अग्रवाल की खंडपीठ एक सुनवाई कर रही थी उस शख्स (सलमान) की ओर से दायर की गई दलील, जिसने कोर्ट में पेश किया कि उसकी पत्नी (शिखा) को उसकी मर्जी के खिलाफ चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (सीडब्ल्यूसी) ने उसके माता-पिता के पास भेज दिया था।


महिला के पिता ने अपनी बेटी का अपहरण करने और उसे शादी के लिए मजबूर करने का दावा करने वाले पति के खिलाफ मुकदमा दायर किया था। महिला ने अपने पति के साथ अदालत का रुख करने का फैसला किया और पीठ ने माना कि एक वयस्क महिला के पास अपनी शर्तों पर जीवन जीने के लिए एक विकल्प है। अदालत ने दंपति को सुरक्षा देने के लिए एटा पुलिस को भी निर्देश दिया। एटा सीजेएम कोर्ट ने पहले महिला को बाल कल्याण समिति के पास भेजा था। बाद में उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके माता-पिता की हिरासत में भेज दिया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बाद में इसे "गलत" चाल करार दिया है।