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भाई-बहन के अटूट प्रेम के प्रतीक पर्व रक्षाबंधन का पर्व सावन की पूर्णिमा पर सम्पन्न किया जाता है मगर उत्तर प्रदेश के महोबा में लीक से हटकर इसे अगले दिन मनाया जाता है। तब यहां बहनों द्वारा भाई की कलाई पर राखी बांधी जाती है साथ ही कजली का विसर्जन भी किया जाता है। समृद्ध संस्कृतिक विरासत और लोक परंपराओं के लिए चर्चित बुंदेलखंड की कजली का अपना विशेष महत्व है। दूसरे क्षेत्रों से अलग बुंदेलों ने यहां इसे आन-बान-शान से जोडक़र रखा गया है। तभी तो कजली से जुड़ी 841 वर्ष पुरानी उस घटना को वह भूल नहीं कर पाते जिसमें महोबा को संकट से उबारने में रणबांकुरे आल्हा और ऊदल ने युद्ध कौशल का प्रदर्शन कर इतिहास रचा था।
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जगनिक शोध संस्थान के महासचिव और रिटायर्ड प्रोफेसर डा. वीरेंद्र निर्झर बताते है कि महाकाब्य ‘आल्हा’ में उल्लिखित यह विशिष्ट वाक्या सन 1182 का है जब चंदेल साम्राज्य की यश, कीर्ति और वैभव की चर्चा चहुंओर होने पर दिल्ली के नरेश पृथ्वी राज चौहान ने महोबा में आक्रमण कर दिया था। तब पृथ्वीराज के पुत्र करिया के नेतृत्व में आई सेना ने पूरे नगर की चारों ओर से घेराबंदी करके चंदेल नरेश परमर्दिदेव परमालद्ध को एक प्रस्ताव पहुंचाया, जिसमे युद्ध टालने के लिए उनका अधिपत्य स्वीकार करने एवं पांच प्रमुख चीजों को सौंपे जाने की मांग की थी। इसमे लोहे को छुलाने पर स्वर्ण में परिवर्तित कर देने वाली ‘पारस पथरी’, नोलखा हार, बेंदुला घोड़ा और चन्देल राजकुमारी चंद्रावल का डोला शामिल था। ठीक रक्षाबंधन के दिन आन पड़े इस संकट ने परमाल के समक्ष भारी मुसीबत खड़ी कर दी थी। मामा माहिल के भड़कावे में आकर राज्य से निष्कासित कर दिए गए दोनों वीर योद्धा आल्हा-ऊदल तब कन्नौज में निर्वासित जीवन बिता रहे थे।
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यही वजह थी कि संकट के समय मे तब पूरे चन्देल राज्य में कजली विसर्जन की चल रही तैयारियां समेत सभी कार्यक्रम रोक दिए गए थे। वीरभूमि राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्रवक्ता डा एल सी अनुरागी बताते है कि महोबा पर आए इस संकट की आल्हा-ऊदल तक सूचना महारानी मल्हना ने एक सेवक के जरिए पहुंचाई थी। तब मातृभूमि पर विपदा देख दोनों वीर योद्धा पुरानी बातों को भूल अपने चुनिंदा सहयोगियों सहित कूच किये थे। उन्होंने योगी वेश में महोबा आकर युद्ध में मोर्चा संभाला था और चौहान सेना को बुरी तरह धूल चटा खदेड़ दिया था। इस युद्ध में पृथ्वीराज का पुत्र करिया भी मारा गया था। इस तरह सावन की पूर्णिमा का दिन तब युद्ध में बीतने के कारण महोबा में कजली विसर्जन एवं राखी का त्योहार नहीं हो सका था। दूसरे दिन यहां विजय उत्सव मनाते हुए बहनों ने भाइयों की कलाई में राखी बांधी थी और धूम-धाम से कजली का कीरत सागर में विसर्जन किया था। अनुरागी के मुताबिक महोबा ओर आसपास के बड़े क्षेत्र में आज भी रक्षाबंधन एवं कजली को अगले दिन ही मनाए जाने की परंपरा है। महोबा में तो इस मौके पर प्रतिवर्ष कजली की आकर्षक शोभायात्रा भी निकाली जाती है। इसके अलावा यहां कीरत सागर सरोवर के तटबन्ध पर सात दिवसीय भव्य मेले का आयोजन भी किया जाता है।
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