Dragon Blood Tree दवा से लेकर दुआ का है प्रतीक माना जाता है जिसका वजूद अब संकट में आ चुका है। सकोट्रा द्वीपसमूह में मिलने वाला इस खास पेड़ का नाम भी बेहद खास है। इस पेड़ की खासियत है कि ये पेड़ 650 साल तक जिंदा रह सकते हैं। 33 से 39 फीट तक ऊंचे इस पेड़ में और भी कई खासियत है। इस पेड़ में सर्दी के साथ-साथ सूखा झेलने की भी क्षमता है। ये गर्म तापमान में अच्छे से पनपते हैं।

इस पेड़ की बनावट भी अजीब सी है। ये छाते की तरह लगते हैं। ऊपर से ये बेहद घने होते हैं। इनका सबसे पहला जिक्र ईस्ट इंडिया कंपनी के लेफ्टिनेंट वेलस्टेड के 1835 में किए एक सर्वे में मिलता है। जहां ये पेड़ पाए जाते हैं, उसे 'ड्रैगन्सब्लड' जंगल कहते हैं जो ग्रेनाइट के पहाड़ों और चूना पत्थर की पठारी पर होते हैं।

दरअसल सोकोट्रा का टापू मुख्य भूभाग से दूर है और इस कारण यहां पेड़ों की कम से कम 37% ऐसी प्रजातियों जो दुनिया में कहीं और नहीं पाई जाती हैं। इतना ही नहीं मॉनसून के दौरान यहां बादल और बौछारें इस पेड़ की पत्तियों के लिए नमी बटोरती हैं। कई विशेषताओं से परिपूर्ण ये पेड़ सदियों से आर्थिक रूप से भी महत्वपूर्ण हैं। स्थानीय लोग इसे पशुओं के आहार के लिए इस्तेमाल करते हैं। इसके फल से गायों और बकरियों की सेहत भी अच्छी रहती है।

इस पेड़ को 'ड्रैगन ब्लड ट्री' इसलिए कहते हैं क्योंकि इसके तने की छाल से निकलने वाले लाल रंग के रेजिन निकलता है। इसके छाल को काटने के बाद उसमें से यह रेजिन निकलता है। इस पेड़ को लेकर कई तरह मिथ्य हैं। यहां के लोकल लोग इस रेजिन को बुखार से लेकर अल्सर के इलाज में उपयोगी मानते हैं। वहीं कुछ लोग इसे जादुई शक्तियों का प्रतीक भी मानते हैं।

दरअसल ड्रैगन के खून के साथ नाम जुड़ने की वजह से इसे जादू-टोटके में इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा इसका इस्तेमाल मंत्र जाप में भी किया जाता है। अफ्रीकी-अमेरिकी जादू में इसका इस्तेमाल नेगेटिव एनर्जी को हटाने के लिए किया जाता है। हालांकि इसके पीछे जाहिर है किसी भी तरह का वैज्ञानिक तथ्य नहीं है। लेकिन इसकी विशेषताओं ने वैज्ञानिकों को भी हैरान कर रखा है।

इतनी विशेषताओं के बावजूद आज ये पेड़ कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। और इनका भविष्य संकट में है। कुछ जगहों पर नए पेड़ों में इनका आकार बहुत ज्यादा बदला हुआ नजर आता है। इसकी सबसे बड़ी वजह है जलवायु परिवर्तन। सोकोट्रा द्वीपसमूह सूख रहा है। एक्सपर्ट्स को डर है कि 2080 तक इनके रहने के 45% इलाके खत्म हो जाएंगे। ऐसे में इन्हें बचाने के लिए जलवायु परिवर्तन को रोकने और उससे निपटने के कड़े कदम जल्द उठाने की जरूरत है।